घर की याद तो आती थी,
आंसू छलक भी जाते थे;
लफ़्ज़ों में हाल बयां ना करते,
पर दर्शक समझ ही जाते थे.
हमारी तेज़ और स्पर्धा को
नयी उचाइयां जो देनी थी,
कुछ अधूरे ख्वाब थे हमारे,
पुराने कुर्ते के फटे जेब थे सारे;
इनको नया जो करना था,
अम्बर से प्रकाश को लाना था.
घर की झोली कम पर जाती
तो हौसला अपने अन्दर ही भर लिए;
मैं फिर आऊंगा की दस्तक छोर कर
घर से दूर हम निकल लिए.
वर्ष कितने ऐसे ही...
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