घर की याद तो आती थी,
आंसू छलक भी जाते थे;
लफ़्ज़ों में हाल बयां ना करते,
पर दर्शक समझ ही जाते थे.
हमारी तेज़ और स्पर्धा को
नयी उचाइयां जो देनी थी,
कुछ अधूरे ख्वाब थे हमारे,
पुराने कुर्ते के फटे जेब थे सारे;
इनको नया जो करना था,
अम्बर से प्रकाश को लाना था.
घर की झोली कम पर जाती
तो हौसला अपने अन्दर ही भर लिए;
मैं फिर आऊंगा की दस्तक छोर कर
घर से दूर हम निकल लिए.
वर्ष कितने ऐसे ही बीते;
संघर्ष में सनी स्याही से,
हम इतिहास के नये पन्ने भरते.
घर की बिलखती यादों को शांत कर
ह्रदय कठोर, हौसला ठान कर,
मैं जल्द आऊंगा के गीत गा कर,
मंजिलों की ओर हम बढ़ते रहते.
अपने आंगन से दूर रह कर,
विशाल गगन में अपनी छाप छोर कर,
आज चंद सितारे तोड़ लाया हूँ;
घर से दूर रह कर
अंधकार जो हमने देखा था,
हिम्मतों की खरी लौ में आज,
अमर दीपक जला कर लाया हूँ.
मंजिलों को हासिल करके,
कुछ और नये ख्वाब देख के,
हौसला कुछ और समेट ले आया हूँ;
नए धुनों में अपने गीत भर कर,
अपनी आवाज़ में गुनगुना रहा हूँ.
माँ के पास आज लौटने,
घर वापस मैं जा रहा हूँ...
घर वापस मैं जा रहा हूँ…
/* I want to dedicate this poem to my lovely Father. What sort of days we have seen together, living away from our own home, for consecutive five years almost, they can' be described in words. However I just tried to present a glimpse in this poem. This is for the first time in my life when I have tried to write a poem in Hindi. I can speak, but honestly, I am very weak at writing Hindi. But still, I have tried.
And my Dad; he is very happy on being back to our home town, back to our home. My mom and me; we glad on seeing him happy. :)) */